BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।

उत्तर -

दार्शनिक अन्तः प्रज्ञावाद अन्तःकरण को एक विशेष प्रकार की इन्द्रिय नहीं मानता है। उसे अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद की यह स्वीकृति मान्य नहीं है कि नैतिक इन्द्रिय में नैतिक बोध क्षमता है, बल्कि अन्तःकरण बुद्धिमूलक है तथा बुद्धिरूप में विद्यमान नैतिक बोध क्षमता सामान्य नैतिक नियमों का सहज ही प्रत्यक्ष करके, उन्हें कर्म विशेष पर लागू करती है और उन कर्मों पर नैतिक निर्णय देती है। दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद के अनुसार नैतिक निर्णय अन्तः प्रज्ञावाद न होकर अनुमानजन्य होता है। "बुद्धिरूप में विद्यमान नैतिक बोध क्षमता एक ऐसा विधान निर्माता है, जो नियमों की संरचना करके उन्हें विशेष परिस्थितियों में कर्मों पर लागू करता है।' इस सिद्धान्त का रूप है - तर्कवाद। 

तर्कवाद

तर्कवाद की मान्यता है कि नैतिक बोध शक्ति और तार्किक शक्ति में भिन्नता है। यह शक्ति शाश्वत और अनुभव निरपेक्ष नैतिक नियमों को तत्काल जानकर उन्हें कर्म विशेष पर लागू करके, कर्म पर निर्णय देती है। कडवर्थ, क्लार्थ तथा बोलास्टन तर्कवाद के मुख्य समर्थक हैं।

1. राल्फ कडवर्थ - कडवर्थ के अनुसार, "शुभ का एक निश्चित स्वभाव है, जो किसी परामर्श या संविदा से स्वतंत्र है। अन्तः नैतिक विभेदीकरण मनुष्य या ईश्वर के मनमाने संकल्प या इच्छा से नियन्त्रित नहीं है।' कडवर्थ नैतिक नियमों की शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय व्यवस्था का समर्थन करते हैं उनका कथन है कि "जिस प्रकार मात्र संकल्प से काला रंग सफेद रंग में नहीं बदला जा सकता है, उसी प्रकार संकल्प द्वारा शुभ को अशुभ में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता है। बुद्धि को शाश्वत, अपरिवर्तनीय, अनिवार्य, सामान्य तथा स्वयंसिद्ध नैतिक नियमों का प्रत्यक्ष होता है और उन्हीं के आधार पर किसी कर्म या घटना पर नैतिक निर्णय दिया जाता है। अतः नैतिक निर्णय बुद्धि की सहज उपलब्धि नहीं है बल्कि वह अनुमानजन्य है। उचित नैतिक निर्णय से सत् कर्म का ज्ञान होता है। बुद्धि को नैतिक नियमों का पर्याप्त ज्ञान है अतः बुद्धि के रूप में नैतिक बोध क्षमता नैतिक जीवन का आवश्यक तत्व है।

2. क्लार्क का मत - क्लार्क ने कडवर्थ के विचारों से सहमति प्रकट की है। फिर भी उन्होंने कडवर्थ के दृष्टिकोणों को भिन्न प्रकार से प्रस्तुत किया है। उनका कथन है कि "नैतिकता के नियम कर्म की शाश्वत उपयुक्तता अथवा अनुपयुक्तता को अभिव्यक्त करते हैं। वस्तुओं और व्यक्तियों के बीच कुछ शाश्वत, अपरिवर्तनीय एवं सामान्य सम्बन्ध होते हैं। ये सम्बन्ध नैतिकता का आधार हैं। क्लार्क के अनुसार, "मानवीय सम्बन्धों में गणितीय अनिवार्यता होती है। बुद्धि गणित के नियमों के समान इनका सहज प्रत्यक्षण करती है। वह इन सम्बन्धों को पहचानने में कुशल और दक्ष है। ये आदर्श सम्बन्ध हैं और ये कर्तव्यों का निर्धारण करते हैं। आदर्श आचरण ही कर्म के सद्भाव और उसके औचित्य का अन्तिम निर्णायक है।'

क्लार्क का मत है कि इन सम्बन्धों के बदलने की स्थिति में कर्तव्य भी बदल जाते हैं। इस प्रकार व्यक्ति के कुछ कर्म अनिवार्य रूप से सत् या असत् होते हैं।

3. बोलास्टन का मत - बोलास्टन ने परिस्थिति विशेष में उचित और उपयुक्त के मध्य पूर्व ऐक्य स्वीकार किया है किन्तु उन्होंने क्लार्क से भिन्न उचित तथा सत्य के तादात्म्य पर अधिक बल दिया है। उन्होंने सुकरात के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया है कि नैतिकता ज्ञानरूप है तथा अनैतिकता के सत्य के बारे में हमारी अज्ञानता है। बोलास्टन का कथन है कि "शुभ और अशुभ बुद्धिजन्य हैं। जब हम सत्य का निषेध करते हैं, तब हमारा कर्म अशुभ है क्योंकि इस निषेध से असत्य का पोषण होता है। वह पुनः कहते हैं कि, "नैतिक अशुभ सत्य का निषेध और नैतिक शुभ उसका विधान है। चोरी करना असत् है क्योंकि इससे इस बात का निषेध होता है कि चुराई गयी वस्तु किसी दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति है। झूठ बोलना पाप है, यह एक बौद्धिक त्रुटि है। बोलास्टन का मत है कि ज्ञानी लोगों को सत् और असत् का विवेक सहज ही हो जाता है।

दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद की यह स्वीकृति है कि नैतिक बुद्धि को सामान्य नैतिक नियमों का स्पष्ट ज्ञान रहता है। नैतिक बुद्धि उन नियमों को कर्म विशेष पर लागू करके उसके सत्- असत् भाव सम्बन्धी नैतिक निर्णय देती है। किन्तु इस सिद्धान्त में नैतिक नियमों की व्याख्या एवं परीक्षा करके उनके औचित्य को प्रदर्शित करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। यह सिद्धान्त केवल यही बताता है कि नैतिक नियम शाश्वत, अपरिवर्तनीय अनिवार्य एवं सार्वभौम हैं किन्तु उनका स्वरूप ऐसा क्यों है, सिद्धान्त इसका अनुसन्धान नहीं करता है। इसके अतिरिक्त दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद नैतिक नियमों का स्पष्टीकरण करने वाले नैतिक आदर्श की, जो नैतिक विभेदीकरण की कसौटी है, खोज भी नहीं करता है।

प्रायः नैतिक नियमों में विरोध और संघर्ष भी दिखाई देता है। यह सिद्धान्त नैतिक नियमों की प्रामाणिकता का समर्थन करता है, जिससे उनके बीच का विरोध और संघर्ष समाप्त नहीं होता है। विभिन्न युगों के नैतिक नियमों में विषमता दिखाई देती है। एक ही देश और काल में भी मानवता के कल्याण के लिए मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन दिखाई देता है। यह भेद मनमाना नहीं है। किन्तु यह सिद्धान्त नैतिक नियमों के परिवर्तनशील स्वभाव को स्वीकार नहीं करता है।

यदि नैतिक नियम को अन्तःकरण या नैतिक बुद्धि द्वारा निर्धारित किया जायेगा तो ये नियम बाह्य होंगे। नैतिक बुद्धि आत्मा का ही अंग है। अतः अंग के नियम पूर्ण के लिए बाह्य होंगे। म्यूरहेड का कथन है कि "यदि नैतिक नियम आन्तरिक है, तो उसे सम्पूर्ण आत्मा का नियम स्वीकार किया जाना चाहिए। नैतिक नियम को नैतिक बुद्धि का नियम मानने पर वे आत्मा के लिए बाह्य होंगे तथा उसके प्रति आत्मा की वफादारी का अर्थ अन्तिम रूप से किसी बाह्य वस्तु के प्रति वफादारी होगा।'

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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